- ग्वालियर राज परिवार के प्रति लोगों का समर्पण

भोपाल देश में भले ही राजशाही का अंत हो गया है, लेकिन राज परिवार के प्रति लोगों का समर्पण और स्नेह कम नहीं हुआ है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ग्वालियर में देखने को मिलता है। सिंधिया परिवार के अलग-अलग सदस्यों ने कई-कई बार राजनीतिक दल बदले हैं, लेकिन जनता के बीच उनका दबदबा कायम रहा है। यानी मतदाता नहीं बदले। गौरतलब है कि ग्वालियर का सिंधिया राज परिवार सियासी तौर पर शुरू से ताकतवर रहा है। अब तक महज दो बार ऐसे मौके आए हैं, जब सिंधिया परिवार के सदस्यों को चुनाव में शिकस्त मिली है। पहली बार 1984 में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बुआ व राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भिंड लोकसभा सीट से चुनाव हार गईं थीं। दूसरी बार खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया 2019 में गुना लोकसभा सीट से चुनाव हार गए। साल 2019 से पहले तक का यह रिकार्ड रहा है कि सिंधिया परिवार के कोई ना कोई सदस्य चुनकर लोकसभा में पहुंचते रहे हैं। ज्योतिरादित्य का यह नया रिकार्ड भी है, जब वे लोकसभा की बजाय राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे हैं। इससे पहले तक सिंधिया परिवार के सदस्य लोकसभा के जरिए संसद पहुंचते रहे हैं। जब तक देश में राजतंत्र की व्यवस्था थी, तब तक सिंधिया परिवार का रुतबा स्वाभाविक तौर पर कायम था। आजादी के बाद जब देश में प्रजातंत्र की नई व्यवस्था को लागू किया गया, तब भी सिंधिया परिवार ने सत्ता से जुड़े रहने की अपनी जमीन को बनाए रखा है। सिंधिया परिवार के सदस्य अलग-अलग राजनीतिक दलों से चुनाव लड़ते रहे हैं, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो जीत उन्हें हर हाल में हासिल होती रही है। गुना संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व राजमाता विजयाराजे संधिया ने 6 बार किया था, जबकि उनके बेटे माधवराव सिंधिया गुना से चार बार जीतने में सफल हुए थे। गुना के अलावा राजमाता सिंधिया और माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व भी किया था। माधवराव सिंधिया ग्वालियर से पांच बार सांसद चुने गए थे। राजमाता सिंधिया की बेटी यशोधरा राजे भी दो बार ग्वालियर से भाजपा के टिकट पर जीतने में सफल हुई थी। सियासी तौर पर सिंधिया परिवार को पहला झटका 1984 में भिंड से लगा था। उसके बाद से सिंधिया परिवार का कोई भी सदस्य भिंड लोकसभा सीट से चुनाव नहीं लड़ा है। तब कांग्रेस ने दतिया राज परिवार के कृष्णा सिंह जूदेव को चुनाव मैदान में उतारा था। वसुंधरा राजे सिंधिया भाजपा के टिकट पर मैदान में थी। उसके बाद 2019 में खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा प्रत्याशी केपी सिंह यादव से एक लाख 26 मतों के अंतर से चुनाव हार थे। सिंधिया परिवार ने अपना पहला और आखिरी चुनाव कभी एक पार्टी से नहीं लड़ा है। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी राजमाता विजया राजे सिंधिया ने अपना पहला चुनाव 1957 में कांग्रेस के टिकट पर गुना लोकसभा सीट से लड़ा और जीता था। उन्होंने 1967 में स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और जीता था। उसके बाद उन्होंने 1989 में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा था। ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने अपना पहला चुनाव 1971 में भारतीय जनसंघ के टिकट पर गुना से लड़ा था। उसके बाद उन्होंने अपना आखिरी चुनाव 1999 में कांग्रेस के टिकट पर लड़ा था। साल 2001 में नई दिल्ली के पास एक विमान दुर्घटना में उनकी मौत हो गई थी। उसके बाद हुए उप चुनाव में कांग्रेस ने माधवराव के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया को मैदान में उतारा था। ज्योतिरादित्य का सियासी सफर 2002 के उप चुनाव हुआ था। उसके बाद वे 2004, 2009 और 2014 का आम चुनाव भी गुना संसदीय सीट से जीता था। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सिंधिया अप्रत्याशित तौर पर चुनाव हार गए थे। तब मध्यप्रदेश में कमलनाथ की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार थी। उस हार के बाद सिंधिया 2020 में कांग्रेस के 22 विधायकों के साथ भाजपा में चले गए। उनके पाला बदलने के कारण कमलनाथ सरकार गिर गई। उनके भाजपा में जाने के बाद यह पहला चुनाव हो रहा है। फिलहाल संसद में सिंधिया की मौजूदगी राज्यसभा के जरिए है। कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में गुना से अप्रत्याशित तौर पर चुनाव हारने के पांच साल बाद सिंधिया फिर से चुनाव मैदान में हैं, लेकिन इस बार ईवीएम पर उनके नाम के आगे चुनाव चिन्ह कमल का निशान होगा। इस बार के चुनाव में सिंधिया का मुकाबला कांग्रेस के राव यादवेंद्र सिंह यादव से है। ऐसे में सिंधिया के सामने परिवार के सियासी बर्चस्व को कायम रखने की चुनौती है।

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