बिहार विधानसभा की 243 सीटों के लिए मतगणना जारी है और कुछ ही देर में सभी सीटों के नतीजे घोषित कर दिए जाएँगे। इस बार पहली बार चुनाव लड़ रहे चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पूरी ताकत से मैदान में उतरे। लेकिन उनकी सारी रणनीति धरी की धरी रह गई। जानिए अब क्या करेंगे पीके?
2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता ने बहुत सोच-समझकर वोट किया, जिसका असर नतीजों में दिख रहा है। बिहार की जनता ने साफ़ कर दिया है कि बिहार में सोशल मीडिया का जादू नहीं चलता। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि पूरे चुनाव में सोशल मीडिया और टेलीविज़न पर छाए रहने वाले एकमात्र व्यक्ति प्रशांत किशोर ही थे, जिन्होंने जन सुराज पार्टी बनाकर सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और "या तो अर्श पर होंगे या फर्श पर" का नारा दिया था। इस चुनाव में मिली हार के कारण राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बारे में कई बातें कही जा रही हैं।
अब क्या करेंगे प्रशांत किशोर?
प्रशांत किशोर भले ही बिहार में हार गए हों, लेकिन जन सुराज का "अर्श पार करना" कोई नाकामी नहीं है। यही वह ज़मीन है जहाँ प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति को नई दिशा दे सकते हैं और राज्य का पुनर्निर्माण, पुनः जुड़ाव और पुनर्कल्पना कर सकते हैं। हार की धूल को पीछे छोड़ते हुए, जन सुराज को अब उम्मीद, पहचान और एक वफ़ादार मतदाता आधार की शुरुआत मिली है जिससे वह उड़ान भर सकता है। अपने तीखे जवाबों से मीडिया के सवालों को टालने वाले प्रशांत किशोर को अब फिर से ध्यान केंद्रित करना होगा।
प्रशांत किशोर ने कहा था, "अर्श पर या अर्श पर।"
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने सही भविष्यवाणी की थी कि उनका जन सुराज या तो "अर्श पर या अर्श पर" होगा। उनकी पार्टी के लिए कोई बीच का रास्ता नहीं होगा। जैसे-जैसे बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे हैं, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि जन सुराज खाता भी नहीं खोल पाया है। इस भारी हार के बाद, राजनेता प्रशांत किशोर को अपने वादे से जल्दबाज़ी में पीछे नहीं हटना चाहिए। पीके और उनके जन सुराज के लिए, अभी अर्श ही सबसे अच्छी जगह है।
कांशीराम की नीति अपनानी होगी।
भारत के राजनीतिक दिग्गजों में से एक और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने पीके जैसे उम्मीदवारों के लिए एक मास्टरप्लान तैयार किया था। उन्होंने सुझाव दिया था कि पहला चुनाव हारना है, दूसरा हार का कारण बनना है और तीसरा जीतना है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए प्रशांत किशोर को आगे बढ़ना चाहिए। पिछले तीन सालों से वे बिहार की सड़कों पर लोगों की आवाज़ उठाते रहे हैं।
अब प्रशांत किशोर के लिए पीछे हटने का समय नहीं है, बल्कि जो उन्होंने हासिल किया है उसे और आगे बढ़ाने का समय है। बिहार में अब हर कोई प्रशांत किशोर और उनके जन सुराज को जानता है, और यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। दशकों से, बिहार दिग्गजों का गढ़ रहा है, जहाँ अक्सर दोतरफा मुक़ाबले देखने को मिलते हैं।
प्रशांत किशोर चुनाव क्यों हार गए?
बिहार में मतदान जाति द्वारा सीमित हो गया है। यहीं पर प्रशांत किशोर ने रोज़गार, पलायन और बिहारियों की अधीनता जैसे मुद्दों के ज़रिए मतदाताओं पर प्रभाव डालने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए।
प्रशांत किशोर ने कहा था, "अगर आगामी विधानसभा चुनावों में जेडी(यू) 25 से ज़्यादा सीटें जीतती है, तो मैं राजनीति छोड़ दूँगा। अगर जेडी(यू) 25 से ज़्यादा सीटें जीतती है और जन सुराज सरकार बनाती है, तब भी मैं पीछे नहीं हटूँगा।" इस बयान के कारण भी उनकी हार हुई।
पीके ने अपनी प्रतिष्ठा, पैसा और करियर एक स्कूल बैग पर दांव लगाने की हिम्मत की, खासकर ऐसे राज्य में जहाँ लालटेन अभी भी पसंदीदा वोट बैंक है। लेकिन वे असफल रहे।
उन्होंने बिहार के आशावान युवाओं से बात की। पीके के पीछे भीड़ स्वाभाविक थी, न कि आम तौर पर राजनीतिक रैलियों में दिखने वाली भुगतान वाली भीड़। इसलिए पीके को बिहार में ही रहना चाहिए।
जन सुराज के प्रशांत किशोर आज बिहार के लाखों लोगों की उम्मीदों का सहारा हैं। हो सकता है कि वे संख्या में थोड़े कम हों, लेकिन यह एक शानदार शुरुआत है।