दुनिया ग्लोबल वार्मिंग नामक एक बहुत बड़ी त्रासदी के समक्ष खड़ी है। खतरा इस कदर बढ़ रहा है कि इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि अक्तूबर महीना जो बीता है वह पृथ्वी के सवा लाख साल के इतिहास में सबसे गर्म था। बढ़ते ग्रीन हाउस गैस के प्रभाव के कारण दुनियाभर में मौसम अजीबोगरीब ढंग से बदल रहे हैं। मौसम चक्र में होने वाले बदलाव का बुरा असर कृषि, स्वास्थ्य से लेकर हर एक क्षेत्र पर पड़ रहा है। अगर हम बढ़ते प्रदूषण पर रोक अभी नहीं लगाते हैं, तो आने वाले समय में समुद्र का जलस्तर काफी बढ़ जाएगा। इस कारण कई बड़े शहर जलमग्न हो जाएंगे और करोड़ों लोगों को दूसरी जगह प्रवास करना होगा। खतरा केवल यही नहीं रुकेगा पृथ्वी के गर्म होने से मौसम काफी खतरनाक हो जाएंगे। हीटवेव, बड़े-बड़े तूफान और असंतुलित मौसम चक्र का बुरा प्रभाव हमारी पृथ्वी के इकोसिस्टम पर पड़ेगा। खतरों की यह लिस्ट काफी लंबी है।
बीती रात देशभर में रौशनी के पर्व दीपावली को काफी धूमधाम के साथ मनाया गया। गौर करने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने दिवाली के दिन पटाखा फोड़ने पर प्रतिबंध को लेकर कई तरह के आदेश जारी किए थे। इसके बाद भी दिवाली की रात लोगों ने इन सभी आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुई जमकर आतिशबाजी की है।
बड़े पैमाने पर होने वाली आतिशबाजी के कारण दिल्ली एनसीआर, गाजियाबाद और कई दूसरे इलाकों में एयर क्वालिटी 40 प्रतिशत तक खराब हो गई। इस कारण एक्यूआई में एक असामान्य वृद्धि देखने को मिली है। बीते दिनों होने वाली बारिश के कारण दिल्लीवासियों को प्रदूषण से राहत मिली थी। हालांकि, दीपावली की रात बड़े पैमाने पर होने वाली आतिशबाजी से प्रदूषण का स्तर फिर से बढ़ चुका है।
दिवाली से पहले जो एक्यूआई करीब 218 के आसपास था। वह कई जगहों पर बढ़कर 999 के आसपास पहुंच गया। आनंदविहार, ओखला, वजीरपुर, बवाना आदि विभिन्न जगहों के हालात काफी खराब हैं। प्रदूषण के बढ़े हुए स्तर के कारण इन इलाकों में विजिबिलिटी भी काफी कम हो गई।
पटाखे ग्रीन हाउस गैसों को बढ़ाने में एक मुख्य भूमिका निभाते हैं। पटाखों को बनाने में बारूद का इस्तेमाल किया जाता है, जो कि पोटैशियम नाइट्रेट (75 प्रतिशत), चारकोल (15 प्रतिशत) और सल्फर (10 प्रतिशत) से मिलकर बनता है। इसे जब एक शेल में रखकर आग लगाई जाती है, तो इनके रिएक्शन से धमाका होता है। पटाखों में कुछ खास तरह के मिनरल एलिमेंट को भी उपयोग में लाया जाता है, जिसकी वजह से पटाखों के फूटने पर अलग-अलग रंग देखने को मिलते हैं। इसमें बेरियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किया जाता है, जिसके चलते हरा रंग देखने को मिलता है। एल्युमीनियम सफेद रंग के लिए, स्ट्रॉन्टियम लाल रंग और कॉपर नीले रंग के लिए। इन सभी कंपाउंड को साथ रखने के लिए बाइंडर्स को उपयोग में लाया जाता है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 2016 में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया था कि पटाखों को जलाने से हवा में 2.5 लेवल 200 से 2000 गुना तक बढ़ जाता है। यहां से तात्पर्य पार्टिकुलर मैटर से है। यह हवा में मौजूद बहुत छोटे कण होते हैं। छोटे कण होने के कारण ये सांस के जरिए हमारे शरीर में पहुंच जाते हैं। इस कारण हमें सांस लेने में समस्या, कफ और आंख में जलन महसूस होती है।
वर्तमान में दीपावली के दिन पटाखों को जलाना हमारी परंपरा के साथ जुड़ चुका है। हालांकि, शुरुआत में ऐसा नहीं था। भारत में मुगलों के आने के बाद पटाखों का इस्तेमाल बढ़ा। पानीपत के प्रथम युद्ध में बारूद और तोप का इस्तेमाल किया गया। इसके बाद 17वीं और 18वीं शताब्दी में दिल्ली और आगरा में आतिशबाजी की परंपरा बढ़ी। इतिहासकारों की मानें, तो 20वीं शताब्दी में हमारे देश में पटाखों का चलन बढ़ा और त्योहार और जश्न के समय इसको इस्तेमाल में लाया जाने लगा। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि दिवाली पर पटाखों को फोड़ना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं था। हालांकि, दूसरी संस्कृति के साथ टकराव के साथ यह चीज हमारी सांस्कृतिक परंपरा में जुड़ गई।