- सफलता की कहानी: काम मांगा तो दिव्यांगता का ताना मारा, अब दूसरों को दे रहे नौकरी

सफलता की कहानी: काम मांगा तो दिव्यांगता का ताना मारा, अब दूसरों को दे रहे नौकरी

हर साल 3 दिसंबर को दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय दिव्यांग दिवस मनाया जाता है। भारत में ऐसे कई दिव्यांग हैं जिन्होंने हार नहीं मानी, खुद को कमजोर मानकर घर नहीं बैठे, बल्कि कुछ ऐसा किया जिसकी मिसाल आज दुनिया में दी जाती है। पढ़िए रायपुर के ऐसे ही तीन दिव्यांगों की सफलता की कहानी

पैर में पोलियो होने के कारण मैं 50 प्रतिशत दिव्यांग हूं। बीकॉम करने के बाद नौकरी के लिए कंपनियों में जाना शुरू किया। हर जगह दिव्यांग होने का ताना मारा जाता था। कहते थे कि तुम्हारे लिए कोई नौकरी नहीं है। मैं रोता हुआ घर आता और किस्मत को कोसता। एक जगह नौकरी मिली, जो घर से 15 किलोमीटर दूर थी। वहां मैं एक पैर से साइकिल चलाकर जाता था। अब दूसरे पैर को खुद नौकरी दे रहा हूं।'

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ये कहानी है छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के 40 वर्षीय डिकेश टंडन की। उन्होंने बताया कि दिव्यांग होने के कारण किसी ने उन्हें नौकरी नहीं दी। 2014 में उन्होंने समाज कल्याण विभाग से लोन लेकर खुद का कारोबार शुरू किया। कूलर और अलमारी बनाने का काम शुरू किया। शुरुआत में दिक्कतें आईं, लेकिन अब सब ठीक चल रहा है।

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दो राजमिस्त्री और एक मजदूर नियमित रूप से काम कर रहे हैं। गर्मी के मौसम में राजमिस्त्री और मजदूरों की संख्या बढ़ जाती है। वे छत्तीसगढ़ पैरा स्पोर्ट्स एसोसिएशन के सचिव हैं। इसके जरिए वे दिव्यांग खिलाड़ियों की मदद करते हैं।

बचपन में दूसरों को खेलते देख मुझे भी खेलने का मन करता था, लेकिन दिव्यांग होने के कारण मुझे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। मैं तवा, शॉटपुट और जेवलिन थ्रो में राष्ट्रीय स्तर पर खेल चुका हूं। वहां मैंने कांस्य पदक भी जीता है।

आर्म रेसलिंग में देश का प्रतिनिधित्व कर कांस्य पदक जीता

इसी तरह डब्ल्यूआरएस कॉलोनी में रहने वाले 40 वर्षीय संदीप कुमार के दोनों पैरों में पोलियो है, जिसके कारण वे 75 प्रतिशत दिव्यांग हैं। संदीप अपनी दिव्यांगता को हराकर देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। किर्गिस्तान में आयोजित एशिया आर्म रेसलिंग कप में देश का प्रतिनिधित्व करते हुए कांस्य पदक जीता।

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इसके अलावा वह व्हीलचेयर क्रिकेट भी खेलते हैं। उनका चयन व्हीलचेयर रग्बी की भारतीय टीम में हो चुका है। संदीप ने बताया कि पिछले दो साल से वह तवा, गोला और भाला फेंक प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले रहे हैं। उन्होंने राज्य स्तर पर एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर एक ब्रांच मेडल भी जीता है।

पढ़ाई के दौरान मैं स्काउट गाइड में था। मुझे 2011 में स्काउट गाइड में राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है। मैं समाज में अपनी भूमिका निभाने के लिए रक्तदान करता हूं। इसके अलावा मैंने नेत्रदान करने का संकल्प पत्र भी भरा है।

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 पिछले 10 साल से मैं ऑटो चलाकर अपनी आजीविका चला रहा हूं। ऑटो में ब्रेक पैर से लगाया जाता है, लेकिन मैंने एक ऑटो खरीदा और उसे मॉडिफाई करवाया। मैंने ऑटो में पैर की जगह हैंड ब्रेक लगवाया। इसके अलावा

समाज का कर्ज चुकाने के लिए मैंने रक्तदान करना शुरू किया, अब तक 60 बार रक्तदान कर चुका हूं।

38 वर्षीय अनवर अली अब तक 60 बार रक्तदान कर चुके हैं। उन्होंने बताया कि 2009 में उनका एक सड़क हादसा हुआ था। जिसमें मेरा एक पैर काटना पड़ा था। हादसे के दौरान मुझे खून की जरूरत थी। एबी निगेटिव होने की वजह से खून मिलने में काफी दिक्कत हुई। मुझे नौ यूनिट खून चढ़ाया गया। मैंने तभी तय कर लिया कि समाज का कर्ज मुझ पर है। इसे चुकाना है। यही सोचकर मैंने रक्तदान करना शुरू किया।

मैं हर तीन महीने में स्वेच्छा से रक्तदान करता हूँ। मैं अपनी विकलांगता को अपनी कमजोरी नहीं मानता। मैं इसे अपनी ताकत मानता हूँ। मैं कृत्रिम पैर की मदद से चल रहा हूँ। मैं कृत्रिम पैर की मदद से माउंट एवरेस्ट के बेस कैंप तक गया था। मैं आजीविका चलाने के लिए एक मेडिकल शॉप में काम करता हूँ।

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