- हां....मैंने पहनी है चूड़ियां पर मैं कमजोर नही।

चैती नवरात्रि का माहौल। जैसा कि आप में से ज्यादातर लोगों को यह पता होगा कि मां दुर्गा की पूजा-अर्चना के साथ उनके सोलह श्रृंगार का भी विधान है लिहाजा खरीदारी के दौरान मेरी नजर बाजार में मां भगवती के लिए बिक रही चूड़ियों पर गई। कांच से बनी सुर्ख लाल रंग की मनमोहक चूड़ियां। अनायास कुछ याद आ गया। कुछ दिनो पहले अखबार में एक खबर छपी थी जिसमे लोकतंत्र बचाओ अभियान के तहत कुछ नेताओं को लज्जित करने के उद्देश्य से उन्हे चूडियां भेजी गईं थी। यह कोई पहली बार नहीं था। इस तरह की मानसिकता का परिचय हम भारतीय अक्सर देते ही रहते है। वैचारिक मतभेद हो या व्यक्तिगत टकराव जब-तब पुरुषों को चूड़ियां भेंट करने की ख़बरें आती रहतीं हैं। मानो चूड़ियां ना हुई रण निमंत्रण हो गई। बचपन से ही हमे यह बताया गया कि चूड़ियां नारी के श्रृंगार सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक हैं किंतु यही चूड़ियां अक्सर पुरुषत्व की प्रेरणा और चुनौती भी बन जाती हैं हमे यह नही बताया गया। मुझे यह समझ नहीं आता कि किसी को नाकारा या कमजोर साबित करने के लिए चूडिय़ां ही क्यों फेंकीं जाती हैं? चूडिय़ां किस बात का प्रतीक हैं? कमजोरी का? कायरता का? बचपन से ये डायलॉग सुनते आ रहे हैं कि हमने चूडिय़ां नहीं पहन रखीं हैं या फिर औरतों की तरह चूडिय़ां पहनकर घर पर बैठो और मजे की बात यह है कि किसी को चूडिय़ों के इस तरह के इस्तेमाल पर ऐतराज भी नहीं है। होगा भी क्यों? सोचेंगे तो होगा ना। जरा सोचिए अपने विरोधी को चूड़ी देकर आप उसकी नही बल्कि महिला शक्ति का अपमान करते है। चूडिय़ां तो मां काली और दुर्गा के हाथ में भी होती हैं तो क्या उनसे बढक़र है कोई शक्ति का रूप? चूडिय़ां तो हर उस लडक़ी के हाथ में होती हैं जो नए सपने सजाती है और बड़ी ही मजबूती से अपने माता-पिता के घर को छोडक़र एक नए घर और अंजान लोगों को अपनाती है। चूडिय़ां तो उन हाथों में भी होती हैं जो नौ महीने तक एक जीवन को अपने अंदर पालती हैं और दर्द की चरम सीमा को पार करके एक नए जीवन को दुनिया में लाती हैं। चूडिय़ां तो उन हाथों में भी थी जिन्होंने महाकाव्य लिख डाले। चंद्रयान 2 के परीक्षण के दौरान हम सब ने नासा की महिला वैज्ञानिकों के हाथों में मौजूद चूड़ियों को तो देखा ही होगा। भरी दुपहरी में कमर में बच्चे को बांधकर ईट के भट्टों पर काम कर रही उस मां के हाथों में भी मैने चूड़ियां देखी है। कहीं से भी कमजोर तो नही दिखी वो मुझे। आज हर उस पुरुष से मेरा एक सवाल है जो अपनी भाषा में चूड़ियों का बेजा प्रयोग करते है। ऐसा कौन-सा रूप देख लिया आप सब ने हमारा कि हमारे श्रृंगार को कमजोरी या नकारेपन का प्रतीक बना दिया गया। कई बार तो ये सोच ही मुझे पल्ले नहीं पड़ती कि अगर किसी का अपमान करना है तो उसे बताया जाए कि वो औरत के समान है क्योंकि औरत मतलब कमजोर। औरत मतलब नाकारा। सदियों से यह मानसिकता और ऐसी महिला विरोधी टिप्पणियां प्रचलन में हैं और हम आज भी यूं ही इसे हांकते चले आ रहे हैं। इतना होने के बावजूद अगर कोई यह कहे कि ऐसा नहीं है। यह औरतों का अपमान नहीं है। उनसे मैं जरूर जानना चाहूंगी कि कैसे नहीं है? चूडिय़ां हम महिलाओं का श्रृंगार हैं। पौराणिक धार्मिक या सांस्कारिक जो भी कारण हो सच यही है की हम औरतें अपने पति की मंगलकामना के लिए ही इन्हें पहनती हैं। कई बार हाथों में चुभता भी है। कभी टूट जाएं तो चोट भी लग जाती है पर फिर भी हम इसे पहनती हैं। जब मैं छोटी थी और मैंने कई बार घर में अपनी मां को देखा कि बर्तन धोते वक्त उनकी चूड़ियां टूट कर चुभ जातीं थीं और खून निकलने लगता। मैंने कई बार पूछा उनसे आप इसे क्यों पहनती हैं उतार फेंको इसे। वह गुस्से से लाल हो जातीं और कहती इस तरह के सवाल दोबारा मत पूछना। अब समझ में आता है कि नारी को सहनशील और त्याग जैसे विशेषणों से क्यों नवाजा गया है। चूड़ियां पहनना कोई इतना आसान काम नहीं है जितना कि आप पुरुष सोचते हैं। चूड़ियां केवल चूड़ियां ही नहीं होती इन्हें सहेजना भी बहुत कठिन होता है। देश की आधी आबादी हम महिलाएं। शक्तिशाली, स्वतंत्र, और समर्थ। बहुत सी क्षमताएँ और गुणों से परिपूर्ण जो हमे किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्ट बना सकते हैं। हालांकि, कुछ समाजों में और कुछ स्थितियों में महिलाओं को आज भी समाज में सही मायने में स्थान नहीं मिल पा रहा है। पुरुष प्रधान समाज द्वारा स्थापित लैंगिक पूर्वाग्रहों के तहत उन्हे कमजोर बनाए रखने की कोशिश जारी है। स्त्री के मन में सदियों से यह कूट-कूट कर डाल दिया गया है कि वह अबला और कमजोर है। हालांकि यह परिप्रेक्ष्य्य अब काफी हद तक बदल रहा है और अब लोग समझ रहे हैं कि महिलाएं समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जिस दिन स्त्री खुद को कमजोर समझना छोड़ देगी उस दिन पूरी संभावना है कि समाज भी यह सोचना छोड़ देगा। किरण बेदी से लेकर कल्पना चावला और लक्ष्मी बाई से लेकर इंदिरा गांधी तक को समाज ने कभी कमजोर नहीं समझा क्योंकि इन स्त्रियों ने खुद को कभी कमजोर नहीं समझा। ऐसे कृत्यों के लिए केवल पुरुषों को ही जिम्मेदार ठहराना गलत होगा। कई मौकों पर ऐसा देखा गया कि पुरुष को पीछे हटता देख स्वयं महिलाओं ने ही अपनी चूड़ियां भेजकर उन्हे ललकारा या नकारा करार दिया। अब ऐसी महिलाओं के विषय में क्या कहा जाए जो स्वयं अपने सौभग्यचिन्ह का इस तरह अपमान कर रही हों। नारी-पुरुष दोनों का आभूषण होकर भी चूड़ियां कई अवसरों पर ‘रण-निमंत्रण’ बन जाती हैं। रंग-बिरंगी खनखनातीं सौभाग्य चिह्न स्वास्थ्य-ज्योतिष धार्मिक आस्था से परिपूर्ण, ऐतिहासिक देव-देवियों के इस आभूषण को इस तरह से इस्तेमाल तो केवल और केवल आपकी नादानी मूर्खता को ही प्रदर्शित करता है। चूड़ियां भेट ही करनी है तो केवल उसे ही दे जिसे आप बहुत अधिक प्रेम करते हैं। इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज में कृष्ण-राधा के अगाध प्रेम को प्रकट करनेवाली मनिहारी लीला अभिनीत की जिसमें राधा से मिलने के लिए कृष्ण मनिहारी का रूप धारण करके आवाज़ लगाते हैं- कोउ चुरियां लेउजी चुरियां। दुर्भाग्य है कि इस देश का आधा हिस्सा जिससे आबाद है उसी के हाथों के आभूषण कच्ची बुद्धि वाले लोगों के घटिया मानसिकता के प्रदर्शन में हथियार बन रहे हैं। हैरत है कि यह जानते हुए भी कि चूड़ियां महिलाएं मर्दों के लंबी आयु की कामना के लिए पहनती हैं बावजूद इसके यदि कोई मर्द कहता है कि मैंने चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं तब इसका क्या मतलब क्निकला जाए? सदियों से चली आ रही इस वाहियात हरकत पर अंकुश लगाना होगा। अब जमाना बदल गया है। आपको बदलना होगा। यदि आपने अपनी मानसिकता नहीं बदली तो यकीनन आप बदल दिए जायेंगे। बावजूद इसके कभी इस तरह की जलील हरकत करने का कोई साहस करें तो वह यह याद रखे कि देश व लोकतंत्र के आधे हिस्से को आपको जवाब देना होगा। यकीनन उसमे आपके घर की महिलाएं भी शामिल होंगी। यह हमारे धीरज और समझदारी का परिचय है कि हाथ में हमारे कांच भी है और कठोर से कठोर जीवन जीने की क्षमता और साहस भी। पुरुष भााइयों से निवेदन हैै कि कभी जरा कांच की चूड़ी पहनने की कोशिश करके देखिएगा पता चलेगा कि महिला का जीवन जीना तो छोडि़ए पुरुषों के बस का तो उनकी चूडिय़ां पहनना भी नहीं है।

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