MP News: रेरा ने पूरे प्रदेश में समान रूप से कॉलोनियों, व्यावसायिक, आवासीय भवनों की बिक्री को अनिवार्य कर दिया है। जब भी इसे किसी कोर्ट में चुनौती दी जाएगी तो मप्र सरकार और रेरा के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा।
मध्य प्रदेश में भू-संपत्ति संबंधी मामलों के नियमन और खरीदारों के हितों की सुरक्षा के लिए गठित रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी (रेरा) इन दिनों खूब चर्चा में है। इसमें प्रोजेक्टों को बेवजह लटकाने, एक्ट के खिलाफ नियम बनाने और लागू करने और चेयरमैन के खिलाफ ईओडब्ल्यू जांच को लेकर है। इसके अलावा एक और बात है जो बेहद गंभीर है और इसके कानूनी दायरे पर सवाल खड़े करती है। सबसे बड़ा पहलू यह है कि रेरा एक्ट के मुताबिक यह सिर्फ प्लान एरिया के लिए ही लागू है, लेकिन मप्र में किसी तरह 5 जून 2017 को अवैधानिक नोटिफिकेशन के जरिए इसे पूरे प्रदेश में लागू कर दिया गया है, जो पारित कानून का खुला उल्लंघन है।
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मार्च 2016 में संसद द्वारा पारित किया गया। यानी पंचायत और नगर पालिका क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए इसे अनिवार्य कर दिया गया है, जो रेरा एक्ट में नहीं है। दूसरा मुद्दा यह है कि इसमें परियोजना में देरी पर असीमित जुर्माना लगाने का अधिकार नहीं है, जबकि रेरा ने एक मामले में 30 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया है, वह भी संबंधित व्यक्ति को कोई नोटिस दिए बिना। ऐसी अनियमितताओं की सूची पर न तो व्यवसायी ने, न ही सरकार के किसी जिम्मेदार व्यक्ति ने, न ही रेरा अध्यक्ष या किसी अधिकारी ने गौर किया।
नियमों के विपरीत पूरे प्रदेश में रेरा अनिवार्य है। अधिसूचना के बाद प्लानिंग एरिया से बाहर रेरा रजिस्ट्रेशन हो रहे हैं, जिससे रियल एस्टेट कारोबारी बुरी तरह परेशान हैं। जबकि रेरा के केंद्रीय कानून के चैप्टर 2 में साफ लिखा है कि अगर कोई विकास प्लानिंग एरिया से बाहर हो रहा है और स्थानीय प्रशासन, खरीदार या कोई अन्य व्यक्ति ग्राहक हितों की अनदेखी की शिकायत करता है, तो रेरा डेवलपर को आदेश दे सकता है और परिस्थितियों का अवलोकन करने के बाद अगर उचित समझे तो उस परियोजना का रेरा रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर सकता है।
जबकि रेरा ने पूरे प्रदेश में बिकने वाली कॉलोनियों, व्यावसायिक, आवासीय भवनों के लिए समान रूप से रेरा को अनिवार्य कर दिया है। जब भी किसी न्यायालय में इसे चुनौती दी जाएगी, तो मप्र सरकार और रेरा के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। सरकार और रेरा के बीच जंग शुरू हो गई है। रेरा के कारण जो फजीहत हो रही है, उसने ग्राहकों और कारोबारियों दोनों की नींद उड़ा दी है। जिस संस्था के अध्यक्ष के खिलाफ आर्थिक अपराध शाखा ने जांच शुरू कर दी हो, उसकी गतिविधियों और भाग्य का अंदाजा लगाया जा सकता है।
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रेरा ने अपने गठन के बाद से और कुछ किया हो या नहीं, लेकिन परियोजनाओं को लंबित रखने का रिकॉर्ड जरूर बना रहा है। इससे खरीददार, बिल्डर, डेवलपर्स काफी परेशान हैं। हाल की कार्रवाई से ऐसा लग रहा है मानो सरकार और रेरा के बीच जंग छिड़ गई है। मप्र में रेरा 1 मई 2017 को अस्तित्व में आया। वैसे तो किसी भी कॉलोनी या आवासीय, व्यावसायिक भवन और कारोबार के निर्माण के लिए पहले से ही कई एजेंसियां थीं, लेकिन मार्च 2016 में राज्य सरकार ने रियल एस्टेट रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट एक्ट पारित कर दिया।
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सभा और लोकसभा, उसके बाद से राज्य सरकारों ने भी अपने-अपने राज्यों में रेरा का गठन किया। मप्र में यह 1 मई 2017 से अस्तित्व में आया। तब आम जनता के साथ-साथ रियल एस्टेट कारोबारियों ने भी इसका स्वागत किया, क्योंकि फर्जी लोगों के कारण नियमानुसार काम करने वाले बदनाम होते थे। समय के साथ उम्मीदों के विपरीत कारोबारियों को भी लगा कि यह संस्था भी काम को आसान बनाने की बजाय उसमें बाधा डालने की प्रवृत्ति पर चल रही है।
प्रोजेक्ट को छह माह में मिल रही हरी झंडी रेरा का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट था। घर और प्लॉट खरीदने वालों के हितों की रक्षा करना, रियल एस्टेट सेक्टर में निवेश को बढ़ावा देना और खरीद अनुबंध पर हस्ताक्षर होने के बाद प्रमोटरों और डेवलपर्स द्वारा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार न करने पर निगरानी और नियंत्रण रखना। मध्य प्रदेश में रेरा का मतलब प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिलने में छह माह लगना, तमाम मंजूरियों में खामियां निकालना और बार-बार प्रक्रिया करवाना हो गया है। तीन मिनट में प्रोजेक्ट की प्रगति रिपोर्ट जमा न करने पर सीधे कंप्यूटर से 30 लाख तक का जुर्माना लगाने का तानाशाही काम सबसे ज्यादा आपत्तिजनक है।
जबकि रेरा के आदेश क्रमांक RERA/FC/2018/Fee दिनांक 24 जुलाई 2018 के अनुसार 2000, 5000, 10000 रुपए ही विलम्ब शुल्क लिया जा सकता था। जो कि क्रमश: 30, 60 और 90 दिन की देरी के लिए है। इसमें यह भी लिखा है कि इससे अधिक देरी होने पर कानून के अनुसार शुल्क लिया जाएगा, जबकि कानून में शुल्क का कोई उल्लेख नहीं है। इस लाइन को अधिक शुल्क लगाने का आधार बनाया गया, लेकिन शुल्क की सीमा का कहीं भी खुलासा नहीं किया गया।
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डेवलपर से लिए गए लाखों रुपए का क्या होगा? इस संबंध में दिलचस्प तथ्य यह है कि जब शुल्क को लेकर कॉलोनाइजर और डेवलपर के बीच असंतोष बढ़ा तो रेरा ने अपनी साख बचाने के लिए 11 मई 2018 को आदेश क्रमांक 2024/आईजी/एम-13/एफ-13(2)/611 जारी किया। जिसमें 30 दिन से 180 दिन या उससे अधिक अवधि तक हर माह 500 से 2500 रुपए विलंब शुल्क लगाया गया। इसी तरह वार्षिक विवरण प्रस्तुत न करने पर 200 से 500 रुपए शुल्क लगाया गया। अब यहां इसका जवाब कौन देगा कि डेवलपर्स से जबरन वसूले गए लाखों रुपए कौन लौटाएगा? लौटाएगा भी या नहीं? यदि कोई कोर्ट जाता है तो इसमें भी विसंगति यह है कि आवेदक को कोई सूचना पत्र नहीं दिया जाता, सीधे विलंब शुल्क लगा दिया जाता है।