- मध्य पूर्व में फैल रहे युद्ध को रोकने में दुनिया की महाशक्तियां भी असमर्थ हैं, अमेरिका भी क्यों बेबस नजर आ रहा है?

मध्य पूर्व में फैल रहे युद्ध को रोकने में दुनिया की महाशक्तियां भी असमर्थ हैं, अमेरिका भी क्यों बेबस नजर आ रहा है?

लेबनान में इजरायली डिफेंस फोर्स और आतंकी संगठन हिजबुल्लाह के बीच संघर्ष जोरों पर है। 2006 के बाद यह पहला मौका है जब इजरायली सेना लेबनान में दाखिल हुई है। इस बीच हिजबुल्लाह के शीर्ष नेताओं की मौत से गुस्साया ईरान तेल अवीव को धमका रहा है। कुल मिलाकर हालात युद्ध की ओर बढ़ते दिख रहे हैं। बड़े देश भी इसे शांत करने में असफल दिख रहे हैं। पिछले साल 7 अक्टूबर को फिलिस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास ने एक बड़ा हमला किया था, जिसमें हजारों इजरायली नागरिक मारे गए थे और सैकड़ों लोगों को बंधक बना लिया गया था। इसके बाद से इजरायल और मध्य पूर्व के बीच युद्ध लगभग छिड़ गया है।

 

 

 अमेरिका और यूरोप समेत कई अरब देशों ने इसमें मध्यस्थता की कोशिश भी की, लेकिन हालात काबू से बाहर होते दिख रहे हैं। फिलहाल क्या है स्थिति? इजरायली सेना लेबनान में दाखिल हो चुकी है। वह सोमवार रात से ही देश के दक्षिणी हिस्से में हिजबुल्लाह के ठिकानों को तबाह करने पर आमादा है। इस बीच हिजबुल्लाह को फंड देने वाला ईरान लगातार इजरायल से अपनी नाराजगी जाहिर कर रहा है। आपको बता दें कि तीन दशक से भी ज़्यादा समय तक हिज़्बुल्लाह के नेता रहे नसरल्लाह को हवाई हमले में मार दिया गया है. इसके बाद से ही उन्हें फ़ंड देने वाला ईरान भड़क गया है. वहीं, कई दूसरे मध्य पूर्वी देशों से भी शोक या नाराज़गी के बयान आए हैं. तो मामला कुछ ऐसा है कि दो लोगों की लड़ाई में दर्शक भी उलझे हुए हैं

अमेरिका कहां खड़ा है

अमेरिका ने शुरू से ही इसमें मध्यस्थता करने की कोशिश की. हमास और इसराइल के बीच युद्ध छिड़ने के बाद से ही जो बिडेन सरकार ने कई बार दावा किया है कि वे मध्यस्थता के आखिरी चरण में हैं और सब ठीक हो जाएगा. यहां तक ​​कि 'साम-दाम-दंड' की नीति अपनाते हुए अमेरिका ने कई आतंकी समूहों पर हमला भी किया. लेकिन नसरल्लाह की मौत के साथ ही मध्यस्थता के अमेरिकी प्रयास ठंडे बस्ते में जाते दिख रहे हैं.

 

इससे पहले इसराइल और अरब के बीच सुलह कराने का अमेरिका का रिकॉर्ड अच्छा रहा है.

- उसने 1978 के कैंप डेविड समझौते का नेतृत्व किया था, जो इसराइल और मिस्र के बीच था.

- 1994 में इजरायल-जॉर्डन शांति समझौते में भी अमेरिका का हाथ था।

  • करीब तीन दशक पहले तत्कालीन इजरायली पीएम यित्जाक राबिन और फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के अध्यक्ष यासर अराफात ने व्हाइट हाउस में हाथ मिलाते हुए शांति का वादा किया था। दो कट्टर दुश्मनों को एक मंच पर लाना बड़ी बात थी, लेकिन अमेरिकी नेतृत्व में यह संभव हो पाया। हालांकि, वह अलग समय था। अब बहुत कुछ बदल गया है।

क्या अमेरिका की पकड़ कमजोर हो रही है?

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अरब दुनिया पर अब अमेरिका का उतना दबदबा नहीं रहा। खासकर ईरान पर। 70 के दशक के आखिर तक ईरान और अमेरिका के बीच अच्छे संबंध थे, लेकिन इस्लामिक क्रांति के बाद समीकरण तेजी से बदल गए। ईरान अमेरिका की पहल को हस्तक्षेप के तौर पर देखने लगा। बदले में अमेरिका ने भी उस पर प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए। ताबूत में आखिरी कील ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के नेता जनरल कासिम सुलेनामी की हत्या के साथ लगी, जिसमें कथित तौर पर अमेरिका का हाथ था। तब से लेकर अब तक संबंध काफी खराब हो गए हैं। मध्यस्थता में एक और बाधा यह है कि अमेरिका का झुकाव इजरायल की तरफ रहा है। इससे अरब देश भी परेशान हैं। रूस की नीयत पर भरोसा नहीं दूसरी महाशक्ति रूस की बात करें तो उसने भी कई बार मध्यस्थ की भूमिका निभाने की कोशिश की है। उदाहरण के लिए सत्तर के दशक में शुरू हुए संघर्ष में उसने कई बार हस्तक्षेप करने की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। 1991 में उसने ओस्लो शांति समझौते में हिस्सा लिया जिसका उद्देश्य इजरायल और फिलिस्तीन के बीच संवाद को बढ़ावा देना था। लेकिन इस समझौते के बाद संघर्ष और बढ़ गए। 

 

 

 

 

रूस ने सीरिया के गृहयुद्ध में भी हस्तक्षेप करने की कोशिश की। लेकिन प्रयास व्यर्थ रहे। अरब देश रूस को अमेरिका जितना शक्तिशाली नहीं मानते और शांति स्थापित करने की उसकी नीयत को भी संदेह की नजर से देखा जाता रहा है। उनका मानना ​​है कि रूस किसी की मदद सिर्फ इसलिए करता है ताकि वह उस क्षेत्र में अपना दबदबा कायम कर सके और अमेरिका से ज्यादा सहयोगी बना सके। दूसरे देश क्या कर रहे हैं? इसके अलावा ज्यादातर देशों की भूमिका बाहरी व्यक्ति से ज्यादा नहीं है। उदाहरण के लिए चीन को देखें तो वह ईरान से बड़ी मात्रा में तेल आयात करता रहा है, इसलिए इस मामले में उसकी बातें भी मायने रखेंगी। हालांकि, चीन का मध्य पूर्व के साथ रूस या अमेरिका जैसा कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं है। साथ ही, इसकी भूमिका अभी भी एक बाहरी देश की तरह है, जिसके कारण मध्य पूर्वी देशों के साथ इसके संबंध व्यापार तक ही सीमित हैं।

 

 

यूरोपीय संघ ने भी इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष में मध्यस्थता करने की कोशिश की, खासकर हाल ही में हुई लड़ाई के बाद। हालांकि, समय के साथ उसकी बातों का ज्यादा असर नहीं हुआ। कतर, जॉर्डन और मिस्र जैसे अरब देश भी गाजा और इजरायल के बीच आते रहे, लेकिन फिलहाल जिस तरह की खींचतान शुरू हुई है, शांति की कोशिशें निरर्थक साबित हो रही हैं, यहां तक ​​कि शांति की बात करने वाले देश खुद ही अप्रत्यक्ष रूप से लड़ाई में शामिल हो रहे हैं।

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