दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि ज़मानत मिलने के बाद सोशल मीडिया पर खुशी व्यक्त करना ज़मानत रद्द करने का आधार नहीं होगा, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि इससे किसी को धमकी या भय उत्पन्न हुआ है।
एक महत्वपूर्ण फैसले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी अभियुक्त को ज़मानत मिलने के बाद सोशल मीडिया पर खुशी व्यक्त करने वाले वीडियो या पोस्ट पोस्ट करना, अपने आप में ज़मानत रद्द करने का कारण नहीं हो सकता, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि उस सामग्री से किसी को धमकी या भय उत्पन्न हुआ है।
दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति रविंदर डुडेजा की पीठ ने शिकायतकर्ता ज़फीर आलम द्वारा दायर याचिका खारिज कर दी। याचिकाकर्ता ने नरेला औद्योगिक क्षेत्र पुलिस स्टेशन में दर्ज एक मामले में अभियुक्त मनीष की ज़मानत रद्द करने की मांग की थी। ज़फीर आलम ने आरोप लगाया था कि मनीष और उसके साथी ज़मानत की शर्तों का उल्लंघन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि अभियुक्त इलाके में भय का माहौल पैदा कर रहे हैं, हथियार लहराते हुए वीडियो पोस्ट कर रहे हैं और सोशल मीडिया पर परोक्ष रूप से धमकियाँ दे रहे हैं। इसके अलावा, एक सह-आरोपी को 12 जून, 2025 को उसके घर के बाहर देखा गया था।
दिल्ली उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण आदेश
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि ज़मानत मिलने पर खुशी जताते हुए सिर्फ़ एक वीडियो या स्टेटस पोस्ट करना धमकी या डराने-धमकाने जैसा नहीं है। अदालत ने कहा कि कुछ स्क्रीनशॉट रिकॉर्ड में पेश किए गए थे, लेकिन उनसे शिकायतकर्ता को डराने-धमकाने का कोई इरादा नहीं दिखता। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ज़मानत रद्द करने के लिए बहुत ही मज़बूत और गंभीर परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, जैसे न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप या ज़मानत की शर्तों का दुरुपयोग।
कोई पुलिस शिकायत दर्ज नहीं
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई करते हुए यह भी कहा कि ज़मानत मिलने के बाद किसी भी धमकी या डराने-धमकाने के संबंध में कोई पुलिस शिकायत दर्ज नहीं की गई थी। नतीजतन, आरोपों की पुष्टि नहीं हो सकी, और इसलिए, वह मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।